तारीख़ बदली तो देखा कि सारा खेल राजनीति का था,
प्यार तो था ही नहीं वहाँ पर.
और जहाँ प्यार था वहाँ राजनीति हो गयी.
ले देकर हर ओर केवल और केवल राजनीति ही दिखी।
"आख़िर है क्या मेरी किस्मत में ? प्यार की आड़ में राजनीति या राजनीति के बलबूते प्यार ? दोनों ही सूरतों में हार ही तो मिली है बस." -
"आख़िर है क्या मेरी किस्मत में ? प्यार की आड़ में राजनीति या राजनीति के बलबूते प्यार ? दोनों ही सूरतों में हार ही तो मिली है बस." -
पूछती है वह, सोचती है वह.
खुद से, अकेली तन्हाइयों में बैठी.
क्या उसकी ये हार हमेशा उसकी हार ही बनकर रह जायेगी ?
या होगा वो, जिसकी उसे उम्मीद भी नहीं है.
जानेंगे हम एक और बदली हुयी तारीख़ में.
लौट रहे हैं आपके जाने पहचाने किरदार
बहुत जल्द ......